आज दिन ढले एक व्यक्ति मेरे पास आकर बैठ गय। वो कुछ दुखी था तो मैंने पूछा उस से “कोण हो तुम और क्या हुआ? इतने मायुश क्यों हो ?”।
झुकी नज़रें भरी आवाज़ में उसने बोला “मैं भारत हूँ”।
जो आज लाल किले पर हुआ तुमने देखा ?
हाँ देखा पहले परेड फिर किसान मार्च, हम्म इस बार का गणतंत्र दिवस याद रहेगा सबको, लेकिन इस में इतना दुखी होने वाली क्या बात है?
“किसान मार्च के दौरान हुई उस हिंसा को नहीं देखा! और जिस तरह से इससे दिखाया जा रहा है हर जगह !” भारत ने पूछा
“हाँ, देखा तो है, पर हम अब कर भी क्या सकते हैं?”मैंने कहा। अच्छा ये सब छोड़ो और ये बताओ इतनी तरक़्क़ी हो रही है तुम्हारी अच्छा लगता होगा न? हर दिन कुछ न कुछ अच्छा सुनने मिलता है तुम्हारे बारे मैं।
तरक़्क़ी! हमारी तरक़्क़ी! बहुत तरक़्क़ी हो रही है यार!
अब देखो न किसने सोचा था –
मेरी राजधानी एक दिन ‘rape’ की राजधानी भी होगी,
अपने अलावा यहाँ किसी को किसी की फ़िक्र भी न होगी,
कभी राम मंदिर, कभी किसान बिल पर प्रदर्शन होंगे,
आज़ादी के इतने साल बाद भी एडमिशन, रासन, नौकरी आदि चीज़ों के लिए आरक्षण की जरुरत होगी।
अहिंसा के पुजारी को बापू बोलने वालों को हिंसा की जरुरत होगी !
तरक़्क़ी! देखो न कितनी तरक़्क़ी हो रही है मेरी,
देश की बेटियाँ दिन छिपे घर बैठें, ये तरक़्क़ी है मेरी,
माँ बाप को भगवान का दर्जा देने की जगह उन्हें बेसहारा छोड़ना
छोटी सी बात के लिए दिल तोडना ,
जब तक हम पर न बीती तब तक बात से मुंह मोड़ना तरक़्क़ी है मेरी।
पल पल खुद को हारते देखता हूँ ,
अपने आपको हिस्सों मैं बांटते देखता हूँ ,
आज तो हद हो गयी बाप को बैठे के हाथों मार खाते देखा है मैंने
बीटा जवान था बाप किसान था, घर जा कर रोया बहुत होगा,
जय जवान जय किसान का नारे बाज़ी से जवान व्/स किसान होते देख रहा हूँ
न जाने तुम किस तरक़्क़ी की बात जर रहे हो!
अरे ! बस भी करो भारत इतना ज्यादा मत सोचो ये सब तो होता रहता है।
ये सब तो होता रहता है, चिल मार यार
वैसे भी आजकल का युवा बरोज़गार ही तो बैठा है,
अब फिर घर की बजाये अगर बहार बैठे तो क्या ही जाता है।